"सियासत की तस्वीरें – मोहब्बत, मजबूरी या कुर्सी की चाल?"

 "सियासत की तस्वीरें – मोहब्बत, मजबूरी या कुर्सी की चाल?"

राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता – न दोस्ती, न दुश्मनी।

कभी जो एक-दूसरे को “निकम्मा” कहने से भी नहीं चूके, आज उन्हीं चेहरों पर मुस्कानें हैं, कैमरों के सामने साथ-साथ भोजन करते हुए तस्वीरें हैं, और मंच पर एक-दूसरे के लिए तारीफों के पुल भी।

ये कोई फिल्मी कहानी नहीं, ये राजस्थान की राजनीति है – जहाँ मोहब्बत और मतभेद दोनों सत्ता की कुर्सी के चारों ओर घूमते हैं।


पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट की सियासी नोकझोंक किसी से छिपी नहीं रही।

वो मानेसर हो या जैसलमेर – जब पूरी सरकार होटल की दीवारों में कैद थी, जब भीषण गर्मी में फाइव स्टार होटल में डेस्टिनेशन वेकेशन चल रहा था, तब यही दो चेहरे आमने-सामने थे।

तब गहलोत साहब ने कहा था – "निकम्मा है..."

और पायलट साहब सत्ता से बेदखल होकर दिल्ली की गलियों में अपनी सियासी ज़मीन तलाश रहे थे।

पर आज हालात बदले हैं – और तस्वीरें भी।


अब जब सत्ता उनके हाथ से निकल चुकी है और विपक्ष की कठोर राह पर चलना है, तब पुराने गिले-शिकवे भूलाने की तस्वीरें साझा की जा रही हैं।

राजनीति का ये रंग आम जनता के लिए भावनाओं का जाल बुनता है – मगर अब जनता भी समझदार है।

उसे याद है मानेसर, याद है जैसलमेर, याद हैं वो 13 दिन, जब लोकतंत्र को होटल में बंद कर उसकी नीलामी की तैयारी की जा रही थी।


-आज जब इन दोनों नेताओं के बीच मोहब्बत का ड्रामा रचा जा रहा है, तो सवाल उठते हैं –                                                  क्या ये सच्ची सुलह है?

या फिर सत्ता की कुर्सी के लिए बनाई गई सियासी रणनीति?


सोशल मीडिया के इस दौर में तस्वीरें सिर्फ यादें नहीं होतीं – वो रणनीति होती हैं, संदेश होती हैं, संकेत होती हैं कि अगली चाल क्या होगी।

पांच ऐसी तस्वीरें हाल ही में वायरल हुईं, जहाँ दोनों नेता साथ खाना खा रहे हैं – उनके बीच वो पूर्व सांसद भी हैं जो भाजपा से होकर कांग्रेस में लौटे हैं, और पीछे खड़े हैं प्रभारी साहब – खुद भोजन परोसते हुए।


सवाल ये नहीं है कि ये खाना किसने परोसा…

सवाल ये है कि यह साथ बैठकर खाना किसके लिए खाया गया?


जनता अब तस्वीरों से पढ़ना सीख गई है। उसे समझ आता है कि जब चुनाव पास आते हैं, तो पुराने दुश्मन भी गले लग जाते हैं।

जनता को मालूम है कि अब 2028 की तैयारी शुरू हो चुकी है – और हर चेहरा, हर मंच, हर भाषण और हर मुस्कान उसी सत्ता की कुर्सी की ओर इशारा कर रही है।


राजनीति में कुछ नहीं छिपता – और न ही अब कुछ छिपाया जा सकता है।

तस्वीरें खुद बोलती हैं…

और जनता अब सुनना ही नहीं, समझना भी जानती है।

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